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Tuesday, February 16, 2010

गांधी की डगर- : एक पुनर्विचार


गांधीवाद के सरकारी प्रचार-प्रसार में जिस तरह का कमीनापन और मठाधीश गांधीवादियों के प्रवचनों में जिस तरह का सतहीपन झलकता रहा है, उसके कारण नई पीढ़ी को महात्मा गांधी से अरुचि होने लगी थी। लेकिन पिछले दिनों बालीवुड की एक फिल्म ‘गांधीगीरी’ को नई पीढ़ी के लिए फैशन की एक नई लहर के रूप में स्थापित करने में काफी हद तक सफल रही। नई पीढ़ी फिल्मों के माध्यम से बापू के विचारों के साथ कहीं अधिक शिद्दत से जुड़ रही है। शायद इसलिए कि फिल्मों ने कहीं अधिक यथार्थवादी एवं आलोचनात्मक ढंग से गांधी के व्यक्तित्व और विचार के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला है।

कई वजहों से इक्कीसवीं सदी में गांधी की फिर से जोरदार वापसी हो रही है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा पहली बार गांधी जयंती को अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के तौर पर मनाए जाने की घोषणा के बाद गांधीवाद पर विचार-विमर्श अब अचानक तेज होता दिख रहा है। गांधीवाद पर विचार-विमर्श की इस घनघोर लहर को देखकर मुझे चिंता होने लगी है। क्योंकि गांधी के विचार सहज बुद्धि और सहज विश्वास से ही समझ में आ सकते हैं। वह अमल करने, आत्मसात करने के लिए हैं, न कि विचार-विमर्श करने के लिए। उसे आचरण से ही समझा और समझाया जा सकता है, न कि बातें बनाकर और गांधी की बुतपरस्ती करके। जैसे योग निरंतर अभ्यास से ही सिद्ध होता है, जैसे परमात्मा की अनुभूति अपने भीतर ठहरे हुए मौन में ही हो सकती है, वैसे ही गांधीवाद को भी अपनी दिनचर्या में व्यावहारिक रूप से अपनाकर ही समझा जा सकता है। जो अमल करने के बजाय गांधीवाद की बातें करता रहता है, वह गांधी से बहुत-बहुत दूर है।

गांधीजी के लिए सत्य जीवन का साध्य था और अहिंसा उसका साधन। वह कहते थे कि “सत्य और अहिंसा के बीच चुनाव करना पड़े, तो मैं अहिंसा को छोड़कर सत्य रखने में आगा-पीछा नहीं करूंगा”। उन्होंने अपने जीवन-संघर्ष को भी सत्य के प्रयोगों की श्रृंखला के रूप में ही देखा। लेकिन गांधीवाद पर हो रहे समकालीन विमर्श में सत्याग्रह पर उतना बल नहीं दिया जा रहा, जितना कि शांति और अहिंसा पर दिया जाता है। खासकर, सत्ता द्वारा प्रायोजित गांधीवाद ऐसा ही है, जिसमें सत्य हाशिये पर है। सत्ता को हमेशा से ही सत्य से खतरा रहा है, शायद इसलिए वह गांधीवाद के सत्याग्रह वाले पहलू को जानबूझकर गौण करने की कोशिश करती है। यहां तक कि न्यायपालिका भी, जो सैद्धांतिक रूप से “सत्यमेव जयते” के शाश्वत मूल्य के आधार पर काम करती है, और व्यवहार में “समरथ को नहीं दोष गोसाईं” के अवसरवादी मूल्य को तरजीह देती है, अपने भीतर के भ्रष्टाचार को उजागर करने वाले सत्य के स्वरों को दबाने की चेष्टा करती दिखाई दे रही है और हड़ताल के रूप में सविनय अवज्ञा और शांतिपूर्ण असहयोग के गांधीवादी उपायों को वह असंवैधानिक करार दे रही है।

असल में, अहिंसा का सिद्धांत सत्ता के लिए हमेशा से विशेष सुविधाजनक रहा है। नागरिक अहिंसक हों तभी उसके द्वारा किया जाने वाला अन्याय और भ्रष्टाचार जारी रह सकता है। यह अनायास नहीं है कि संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा दो अक्तूबर को महात्मा गांधी की स्मृति में अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाए जाने का निर्णय लिया गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ पर अपना प्रभुत्व रखने वाली महाशक्तियों द्वारा विश्व भर में किया जाने वाला शोषण, अन्याय और भ्रष्टाचार तभी तक जारी रह सकता है जब तक उसका कोई प्रतिरोध न हो, या फिर वह अहिंसक प्रतिरोध हो। मजे की बात यह है कि सत्ता अक्सर ही सत्य की आवाज को दबाने के लिए हिंसा का सहारा लेती है और उस हिंसा को वह हमेशा ही वैध और नीतिपूर्ण ठहराने की कोशिश करती है। सत्ता दूसरों से तो अहिंसक बनने की अपेक्षा करती है, लेकिन खुद हर संभव मौके पर हिंसा करने से नहीं चूकती। दुनिया भर के राष्ट्रों में पुलिस, सेना और जेल कर्मियों के द्वारा नागरिकों की जो हत्याएं और उनके साथ जो मारपीट की जाती हैं, क्या उन्हें अहिंसा का पाठ सीखने-सीखाने की जरूरत नहीं है?

हिंसा और अपराध की मुख्य रूप से तीन ही वजहें हैं – एक तो है मानसिक प्रवृत्ति, दूसरा है अभाव और तीसरा है अन्याय। प्रेम और अहिंसा एक तरह का मनौवैज्ञानिक उपाय है जिससे हिंसक और आपराधिक प्रवृत्तियों पर कुछ हद तक काबू पाया जा सकता है। लेकिन इस उपाय को कभी अपराधियों को सुधारने के लिए व्यापक तौर पर आजमाया नहीं गया। दुनिया में नागरिकों द्वारा हिंसा और अपराध की ज्यादातर घटनाएँ मानसिक प्रवृत्तियों के कारण नहीं, बल्कि अभाव और अन्याय की प्रतिक्रिया में हो रही हैं। अहिंसा के द्वारा उनका समाधान कतई नहीं किया जा सकता है। इसका समाधान तो सत्याग्रह और सुनिश्चित न्याय से ही हो सकता है। लेकिन यह एक जटिल मुद्दा है। इसका एक पहलू तो यह है कि अहिंसक सत्याग्रह कोई कमजोर व्यक्ति नहीं कर सकता और अहिंसक सत्याग्रहियों को अक्सर कमजोर समझ लिया जाता है। कोई मार खाता रहे, सजा भुगतता रहे और सत्य को अंतिम सांस तक दोहराता रहे, इतनी सहनशीलता सबमें नहीं होती।

गांधी कहते हैं कि “यह याद रखना चाहिए कि सत्याग्रह अगर संसार की सबसे बड़ी ताकत है, तो इसके लिए मन में क्रोध और दुर्भाव रखे बगैर अधिक से अधिक कष्ट-सहन की क्षमता भी आवश्यक है”। लेकिन अहिंसक सत्याग्रह में सहनशीलता से भी अधिक जरूरी है इंतजार करने का धैर्य। अन्याय करने वाला जब तक सत्य के सामने पस्त न हो जाए, या जब तक उसका हृदय परिवर्तन न हो जाए या जब तक वह अपनी किन्हीं अन्य विवशताओं के कारण अपना रवैया बदलने के लिए बाध्य न हो जाए, तब तक अत्याचार को सहते हुए इंतजार करने का धैर्य रखना बहुत कठिन है। कष्ट सहन करने के मामले में आजादी के क्रांतिकारी दीवाने गांधी और उनके अहिंसक भक्तों से कई गुना आगे थे, लेकिन वे आजादी का इंतजार करने के लिए कतई तैयार नहीं थे। हिंसक सत्याग्रह भी उतना ही नैतिक और उदात्त होता है, जितना कि अहिंसक सत्याग्रह। लेकिन हिंसक सत्याग्रह में एक तरह की अधीरता होती है, उसमें अहिंसक सत्याग्रह की तरह अवसरवाद और समझौतापरस्ती की लोचनीयता नहीं होती।

मेरे लिए न तो सत्य साध्य है और न ही अहिंसा। ये दोनों गांधीवादी मूल्य मेरे लिए साधन मात्र हैं। मेरे जीवन का साध्य है न्याय। न्याय से मेरा तात्पर्य है, समानता — आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक समानता। कम से कम उतनी समानता तो मुझे हर हाल में चाहिए, हर कीमत पर चाहिए, जिसे भारतीय संविधान मुझे एक नागरिक की हैसियत से प्रदान करने का संकल्प करता है, और वह है प्रतिष्ठा और अवसर की समानता। न्याय पाने के बुनियादी साधन के रूप में सत्य के प्रति मेरी निष्ठा और आग्रह में कमी नहीं है। लेकिन मेरे स्वभाव में सत्य के प्रति जितना आग्रह है, अहिंसा का भाव उस हद तक नहीं है। मैं उतना सहनशील नहीं हूं, जितना कि गांधीवाद के मुताबिक मुझे होना चाहिए। क्रोध और प्रतिकार के अंश मेरे स्वभाव में हैं। यदि कदाचित कभी वैसी नौबत आई तो शायद आत्म-रक्षा में अन्याय का प्रतिकार करने के लिए मैं हथियार भी उठा लेने में संकोच न करूं, जो कि क़ानूनन भी गुनाह नहीं है। लेकिन निजी और सार्वजनिक जीवन में न्याय पाने के अपने जीवन-संघर्ष में एक पत्रकार-लेखक के तौर पर मेरे लिए अहिंसा और हिंसा को बरतने का एकमात्र माध्यम भी सत्य ही है। मैं अपने शब्दों में ही हिंसक या अहिंसक हो सकता हूँ। क्योंकि शब्द ही मेरे हथियार हैं, शब्द ही मेरे ढाल हैं।


इंसान और insaaniat

Allah ham sab me se jo jo is rah per chalna chahta hia un ko taoufeeq atta farmay or jo insan insaniat per zulm kartey hian unhen Hidayat naseeb farmaye...................... Aameen